वैलेंटाइन- डे कहीं हम सबके कदम विनाश की ओर तो नहीं ले जा रहा है ?

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वैलेंटाइन- डे कहीं हम सबके कदम विनाश की ओर तो नहीं ले जा रहा है ?

यह उस संस्कृति का प्रतीक है जहां लोग रिश्तो में नहीं बने रहते ,

क्यों नहीं हम इस दिवस को मातृ- पितृ सम्मान दिवस के रूप में मनाएं मदन महर ।

लोहाघाट। भारतीय समाज में पाश्चात्य संस्कृति की छाया से हमारे सामाजिक नैतिक एवं परंपरागत मूल्य प्रभावित होते जा रहे हैं जिस समाज में नारी को देवी माना जाता है उसके प्रति हमारी दृष्टि इतनी क्रूर होती जा रही है जिस पर गंभीर चिंतन एवं मनन करने की आवश्यकता है । परिवार में जिन माता-पिता एवं बुजुर्गों के चरणों की धूल माथे में लगाकर जीवन आलोकित करने की कामनाएं की जाती थी, इसके ठीक विपरीत माता-पिता के लिए आज घर में कोई स्थान न देकर उन्हें वृद्धाश्रम में धकेला जा रहा है।

प्रमुख शिक्षाविद मदन सिंह महर का कहना है कि वैलेंटाइन – डे भी पाश्चात्य संस्कृति की एक ऐसी दूषित प्रेम की मिसाल है जो भारतीय समाज की प्रवृत्ति व प्रकृति से दूर तक मेल नहीं खाती है।अगर प्रेम का इजहार ही करना है तो क्यों नहीं 14 फरवरी को माता-पिता वृद्ध सम्मान दिवस के रूप में मनाया जाए।
एबीसी आल्मा मेटर चम्पावत में कक्षा बारह में अध्ययनरत छात्रा मातंगी मदन का कहना है कि वैलेंटाइन डे को मातृ पितृ सम्मान की दृष्टि से देखा जाना चाहिए । माता-पिता के बराबर निश्छल प्रेम अन्य किसी का नहीं हो सकता इसकी शुरुआत हम अपने से करें ।

एबीसी आल्मा मेटर चम्पावत में कक्षा 11वीं में अध्ययनरत छात्रा अलीना खान का कहना है कि जहां पारिवारिक संस्कार में लोग बंधे हुए हैं, वहीं अभी सामाजिक विकृति का ताने-बाने का कम असर देखने को मिलता है, लेकिन जब विकृतियों को सामाजिक प्रोत्साहन मिलने लगता है तो ऐसे माहौल में अपने को कैसे बचाया जा सकता है, यह एक गंभीर विषय बनता जा रहा है ।

‌‌एबीसी आल्मा मेटर चम्पावत में कक्षा 9वीं में अध्ययनरत छात्रा मीनाक्षी जोशी का कहना है कि आज शिक्षा के साथ संस्कारों की अत्यंत आवश्यकता है । हमारे विद्यालय एबीसी में संस्कारों को काफी महत्व दिया जाता है यही वजह है कि यहां के छात्र-छात्राओं की पारिवारिक सोच अलग है ।

एबीसी आल्मा मेटर चम्पावत में कक्षा 11वीं में अध्ययनरत छात्रा दिया रस्यारा का कहना है कि जरूरत इस बात की है कि हम क्यों पाश्चात्य संस्कृति को अपने यहां पनपने का अवसर दे रहे हैं जबकि यहां की संस्कृति – प्रवृत्ति एवं परंपरा दूर तक हमारी भावनाओं एवं परंपराओं से मेल
नहीं खाती है ।

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दया जोशी (संपादक)

श्री केदार दर्शन

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