निजी स्कूल शिक्षा के केंद्र नहीं लूट का अड्डा हैं अंतर्राष्ट्रीय समाजसेवी रोशन रतूड़ी ने निजी स्कूलों की मनमानी पर उठाई आवाज…


निजी स्कूल शिक्षा के केंद्र नहीं लूट का अड्डा हैं अंतर्राष्ट्रीय समाजसेवी रोशन रतूड़ी ने निजी स्कूलों की मनमानी पर उठाई आवाज…
संवाददाता ठाकुर सुरेंद्र पाल सिंह
उत्तरकाशी। शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार और निजी स्कूलों की मनमाफिक लूट के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय समाजसेवी एवं ह्यूमन राइट्स के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रोशन रतूड़ी ने कड़ा रुख अपनाते हुए कहा कि उत्तराखंड समेत पूरे देश में निजी स्कूल अब शिक्षा के केंद्र नहीं, बल्कि मुनाफाखोरी के अड्डे बन चुके हैं। फीस, किताबें, यूनिफॉर्म और ट्रांसपोर्ट के नाम पर अभिभावकों की जेबें बेहिचक काटी जा रही हैं।
रतूड़ी ने आरोप लगाया कि स्कूल प्रबंधन अभिभावकों को कुछ चुनिंदा दुकानों से सामग्री खरीदने के लिए बाध्य करता है, जिससे मोटा कमीशन सीधे स्कूल प्रशासन की जेब में जाता है। उन्होंने चेतावनी दी कि यह शोषण अब और सहन नहीं किया जाएगा। यदि सरकार और प्रशासन ने आंखें मूंदे रखीं तो जल्द ही राज्यव्यापी आंदोलन की शुरुआत की जाएगी।
उनका मानना है कि शिक्षा का व्यवसायीकरण समाज के लिए बेहद घातक है। गरीब और मध्यमवर्गीय परिवार हर साल बढ़ती फीस के बोझ से कराह रहे हैं, जबकि शिक्षा की गुणवत्ता में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं दिखता। ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति और भी चिंताजनक है, जहां लोग अपनी आय से अधिक धन बच्चों की पढ़ाई पर खर्च कर रहे हैं।
शिक्षा विभाग और शासन प्रशासन पर भी रतूड़ी ने तीखे सवाल उठाए। उनका कहना है कि अब तक केवल दिखावटी कार्रवाइयां की जाती रही हैं। यदि प्रशासन वास्तव में ईमानदार होता, तो दोषी स्कूलों पर सख्त कार्यवाही की जा चुकी होती।
इस समस्या के समाधान के लिए रतूड़ी ने कुछ ठोस सुझाव भी दिए हैं – जैसे फीस नियंत्रण कानून लागू करना, स्कूलों का वार्षिक ऑडिट कराना, अभिभावकों की शिकायतों के लिए स्वतंत्र हेल्पलाइन शुरू करना और किताबों तथा यूनिफॉर्म की खरीद में स्वतंत्रता देना। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह केवल शिक्षा की लड़ाई नहीं, बल्कि समाज के भविष्य की रक्षा का सवाल है। यदि अब भी समाज चुप रहा, तो अगली पीढ़ियाँ नैतिकता और संवेदनशीलता से वंचित रह जाएंगी।
उन्होंने यह भी कहा कि समाज का मौन और प्रशासन की उदासीनता एक बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। यह सिर्फ निजी स्कूलों की मनमानी नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार का प्रतिबिंब है। स्कूलों की मान्यता, वार्षिक निरीक्षण और फीस स्वीकृति की प्रक्रियाएं भी घोर अनियमितताओं से ग्रस्त हैं।
रतूड़ी ने कई जिलों में सामने आए मामलों का उल्लेख करते हुए बताया कि कुछ स्कूल बिना पंजीकरण के वर्षों से संचालित हो रहे हैं, और शिक्षा विभाग को जानकारी होने के बावजूद कोई ठोस कार्रवाई नहीं की जाती। इसके पीछे कारण स्पष्ट है – लाभ की साझेदारी। दूसरी ओर, अभिभावक आर्थिक दबाव और सामाजिक संकोच के कारण अपनी आवाज नहीं उठा पा रहे हैं।
उन्होंने समाजसेवी संगठनों, अभिभावक संघों और मीडिया से आह्वान किया कि वे आगे आकर इस अन्याय को उजागर करें। साथ ही, उन्होंने सुझाव दिया कि हर जिले में एक स्वतंत्र शिक्षा निगरानी समिति गठित की जाए, जिसमें सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षाविद्, वकील और अभिभावक प्रतिनिधि शामिल हों। यह समिति स्कूलों की पारदर्शिता और शुल्क संरचना पर निगरानी रखे।
रतूड़ी ने कहा कि कई राज्यों में पहले से ही फीस नियंत्रण कानून लागू हैं, जिससे वहाँ के स्कूल मनमानी नहीं कर पाते। लेकिन उत्तराखंड में इस दिशा में कोई प्रभावी कानून नहीं है, जिससे स्कूलों को खुली छूट मिली हुई है। उन्होंने राज्य सरकार से मांग की कि गुजरात और महाराष्ट्र की तर्ज पर यहां भी एक सख्त कानून लाया जाए।
संविधान में दिए गए शिक्षा के मौलिक अधिकार का हवाला देते हुए उन्होंने सवाल किया कि जब संविधान सभी को समान शिक्षा का अधिकार देता है, तो निजी संस्थानों को आमजन के साथ खिलवाड़ करने की छूट किसने दी?
शिक्षा की पवित्रता को बचाने की दिशा में रतूड़ी की यह पहल अब एक जनआंदोलन का रूप लेने लगी है। सोशल मीडिया पर उनके बयानों को व्यापक समर्थन मिल रहा है, और हजारों अभिभावक एवं युवा इस मुहिम से जुड़ने की इच्छा जता चुके हैं।
खबर के अंत में रतूड़ी ने दो टूक शब्दों में कहा, अब वक्त आ गया है कि हम सिर्फ तमाशबीन न बनें, बल्कि इस लूटतंत्र के खिलाफ एकजुट होकर खड़े हों। नहीं तो अगली पीढ़ी हमें माफ नहीं करेगी।


