……जहां पद मिलते ही लोग लूटते हैं लाभ, कर्नल कोठियाल ने ठुकरा दी हर सुविधा

एक कर्नल ऐसा भी पूर्व सैनिकों के लिए छोड़ दीं ₹25 लाख की सरकारी सुविधाएं
जहां पद मिलते ही लोग लूटते हैं लाभ, कर्नल कोठियाल ने ठुकरा दी हर सुविधा
संवाददाता ठाकुर सुरेंद्र पाल सिंह
उत्तरकाशी। जब देश की राजनीति में पद, पैसे और विशेषाधिकारों की दौड़ तेज होती जा रही है, तब एक पूर्व सैनिक ने अपने कर्म और फैसले से यह साबित कर दिया है कि राजनीति का मूल स्वरूप आज भी सेवा और त्याग हो सकता है। यह उदाहरण हैं — कर्नल (सेवानिवृत्त) अजय कोठियाल, जिन्होंने उत्तराखंड सरकार से बतौर पूर्व सैनिक कल्याण सलाहकार परिषद के अध्यक्ष के रूप में मिलने वाली सभी सरकारी सुविधाएं और मासिक मानदेय को ठुकरा दिया है। उनका स्पष्ट कहना है — “यह पैसा मुझे नहीं चाहिए। इसे प्रदेश के पूर्व सैनिकों के कल्याण पर खर्च किया जाए। मैं यहां सुविधाएं लेने नहीं, योगदान देने आया हूं।”
इस निर्णय की जानकारी तब सामने आई जब कर्नल कोठियाल की ओर से सैनिक कल्याण निदेशालय को भेजी गई तीन पन्नों की चिट्ठी सार्वजनिक हुई। इस पत्र में उन्होंने न केवल अपने इस निर्णय का औपचारिक उल्लेख किया, बल्कि पूर्व सैनिकों के लिए अपनी प्रतिबद्धता को भी स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा है कि बतौर अध्यक्ष उन्हें हर महीने ₹2,19,000 की विभिन्न सरकारी सुविधाएं और मानदेय मिलते हैं, जो सालाना ₹25 लाख से अधिक बैठते हैं। परंतु उन्होंने यह पूरी राशि खुद के लाभ के बजाय पूर्व सैनिकों के कल्याण में लगाने का निश्चय किया है।
इस चिट्ठी में जो आंकड़े सामने आए हैं, वे चौंकाने वाले हैं। उनके पद के तहत उन्हें हर महीने ₹80,000 वाहन व्यय, ₹25,000 आवास और कार्यालय व्यय, ₹2,000 टेलीफोन/मोबाइल खर्च, ₹27,000 कार्मिकों का मानदेय, ₹45,000 स्वयं का मानदेय और ₹40,000 यात्रा भत्ता मिलता था। कुल मिलाकर यह राशि ₹2,19,000 प्रतिमाह होती है, जो कर्नल कोठियाल ने लेने से इनकार कर दिया है। उनका कहना है कि यह संसाधन अगर सैनिकों की भलाई में लगे, तो इसका अर्थ कहीं अधिक मूल्यवान होगा।
आज जब अधिकांश राजनेता पद मिलते ही सुविधाओं को बटोरने की होड़ में लग जाते हैं वाहन, बंगला, स्टाफ, मानदेय, यात्रा भत्ते ऐसे समय में कर्नल कोठियाल का यह निर्णय राजनीति में एक नई बहस को जन्म देता है। उनका यह कदम बताता है कि सत्ता केवल लाभ अर्जन का माध्यम नहीं, बल्कि जनसेवा का एक अवसर भी हो सकता है। विश्लेषकों की मानें तो यह कदम न केवल उनकी छवि को और निखारेगा, बल्कि जनता के बीच यह संदेश भी देगा कि वे सत्ता सुख के लिए नहीं, बल्कि जनहित के उद्देश्य से राजनीति में आए हैं।
उत्तराखंड के गठन के बाद यह शायद पहला ऐसा अवसर है जब किसी सरकारी जिम्मेदार व्यक्ति ने स्वेच्छा से अपने सभी सरकारी लाभ त्याग दिए हों। यह निर्णय इस लिहाज से भी ऐतिहासिक बनता है क्योंकि राज्य सैनिक बहुल है और यहां पूर्व सैनिकों के सम्मान और कल्याण का विषय बेहद भावनात्मक है। कर्नल कोठियाल स्वयं एक युद्धवीर रहे हैं और उनकी पहचान एक सच्चे देशभक्त के रूप में रही है। ऐसे में उनके इस फैसले को केवल एक राजनीतिक कदम नहीं, बल्कि उनके जीवन मूल्यों की अभिव्यक्ति माना जा रहा है।
उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जनपद में 26 फरवरी 1969 को जन्मे कर्नल (सेवानिवृत्त) अजय कोठियाल सेना में अपने शौर्य, पर्वतारोहण में विशेष योगदान और सेवानिवृत्ति के बाद युवाओं को राष्ट्रसेवा के लिए तैयार करने वाले एक प्रेरणास्रोत व्यक्तित्व हैं। उनका पैतृक गाँव टिहरी के नरेंद्रनगर ब्लॉक के चौपाफा (या चौंफा) गांव में स्थित है। उनके पिता सत्यशरण कोठियाल सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) में इंस्पेक्टर जनरल पद पर कार्यरत रहे, जबकि माता सुशीला कोठियाल एक शांत, संस्कारी और सादा जीवन जीने वाली गृहिणी रहीं। कर्नल कोठियाल ने अविवाहित रहते हुए स्वयं को पूरी तरह सेवा और समर्पण के लिए समर्पित कर दिया।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा देहरादून के सेंट जोसेफ्स एकेडमी, ब्राइटलैंड्स स्कूल और केंद्रीय विद्यालय में हुई। डीएवी पीजी कॉलेज, देहरादून से स्नातक की पढ़ाई के बाद उन्होंने सीडीएस परीक्षा पास की और 1992 में भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून से पासआउट होकर गढ़वाल राइफल्स की चौथी बटालियन में सेकेंड लेफ्टिनेंट के रूप में सेना में भर्ती हुए। उन्होंने भारतीय सेना में लगभग 26 वर्षों तक सेवा दी। इस दौरान 1999 के कारगिल युद्ध में उन्होंने निर्णायक भूमिका निभाई और 2003 में जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद विरोधी अभियान के दौरान घायल होने के बावजूद अद्वितीय साहस का परिचय दिया, जिसके लिए उन्हें देश का तीसरा सबसे बड़ा वीरता पुरस्कार कीर्ति चक्र प्रदान किया गया।
कर्नल कोठियाल को कीर्ति चक्र के अतिरिक्त शौर्य चक्र, विशिष्ट सेवा पदक (VSM) और वाउंड मेडल जैसे उच्च सैन्य सम्मान भी प्राप्त हुए हैं। एक सैनिक होने के साथ ही वह एक प्रख्यात पर्वतारोही भी हैं। वर्ष 2001 में उन्होंने माउंट एवरेस्ट फतह की और 2011 में नेपाल की दुर्गम चोटी माउंट मानास्लू के अभियान का नेतृत्व किया। इन अभियानों में वे प्रमुख संगठनकर्ता रहे और पूरी टीम को सुरक्षित सफलता के साथ शिखर तक पहुंचाया।
सेना से सेवानिवृत्त होने के बाद 2013 से 2018 तक उन्होंने उत्तरकाशी स्थित नेहरू पर्वतारोहण संस्थान (एनआईएम) में प्राचार्य के रूप में कार्य किया। इस दौरान उन्होंने महसूस किया कि उत्तराखंड के युवाओं में देश सेवा का जज़्बा तो है, लेकिन प्रशिक्षण और संसाधनों की कमी उन्हें पीछे छोड़ देती है। इसी सोच से उन्होंने ‘युथ फाउंडेशन उत्तराखंड’ की स्थापना की, जो युवाओं को सेना, अर्धसैनिक बलों और पुलिस की तैयारी के लिए निःशुल्क प्रशिक्षण प्रदान करता है। आज यह फाउंडेशन सीमांत गाँवों से लेकर दूरस्थ पहाड़ी क्षेत्रों तक हजारों युवाओं के जीवन में बदलाव ला रहा है।
कर्नल कोठियाल का जीवन वीरता, त्याग और सामाजिक जागरूकता की एक जीवंत मिसाल है। सेना की वर्दी उतारने के बाद भी उन्होंने राष्ट्रसेवा की भावना को नहीं छोड़ा, बल्कि उसे और व्यापक रूप दिया। उत्तराखंड जैसे राज्य में, जहां सीमित संसाधनों के बावजूद युवाओं में आगे बढ़ने की तीव्र ललक है, उनके प्रयासों ने एक नई उम्मीद जगाई है। वे उन विरले व्यक्तियों में से हैं जिन्होंने न केवल बंदूक के दम पर देश की रक्षा की, बल्कि अपने अनुभव और दृष्टि से नई पीढ़ी को राष्ट्रभक्ति की राह दिखाई।
राजनीति में जब हर कदम के पीछे लाभ और रणनीति की बात की जाती है, तब कोठियाल का यह फैसला यह विश्वास दिलाता है कि सब कुछ अभी खत्म नहीं हुआ है। राजनीति में आज भी वे लोग हैं जो पद को जिम्मेदारी समझते हैं, सुविधा नहीं। यह फैसला निश्चित ही युवाओं, पूर्व सैनिकों और समाजसेवकों के लिए प्रेरणास्रोत बनेगा।
अंततः यह सवाल हर नागरिक के सामने है क्या राजनीति में निस्वार्थ सेवा संभव है? कर्नल अजय कोठियाल का यह त्यागपूर्ण निर्णय बताता है हां, संभव है। और जब यह संभव होता है, तो राजनीति फिर से आदर्श बन जाती है जैसा उसे होना चाहिए था।

