अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा: यूट्यूब और सोशल मीडिया पर नियंत्रण की कोशिशें….

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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा: यूट्यूब और सोशल मीडिया पर नियंत्रण की कोशिशें….
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी लोकतांत्रिक समाज की बुनियाद होती है। यह अधिकार नागरिकों को न केवल अपनी राय प्रकट करने का मौका देता है, बल्कि सरकार की नीतियों पर आलोचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का अवसर भी प्रदान करता है।

आधुनिक युग में, यूट्यूब और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स ने इस स्वतंत्रता को एक नए और सशक्त रूप में लोगों तक पहुँचाया है। भारत में रवीश कुमार, ध्रुव राठी, अभिशर शर्मा जैसे स्वतंत्र पत्रकार और यूट्यूब क्रिएटर्स ने इन प्लेटफार्म्स का उपयोग करते हुए जनता तक सटीक और साहसिक जानकारी पहुँचाई है।

हालांकि, हाल ही में यूट्यूब और अन्य डिजिटल प्लेटफार्म्स पर स्वतंत्र क्रिएटर्स के लिए लाइसेंसिंग प्रणाली लागू करने की सरकारी चर्चा ने चिंता उत्पन्न कर दी है। इस दिशा में उठाए गए कदमों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नियंत्रण के संभावित खतरों को उजागर किया है। इस लेख में हम इस विषय का गहराई से विश्लेषण करेंगे और यह समझने का प्रयास करेंगे कि यह कदम लोकतंत्र और स्वतंत्रता के लिए कितना हानिकारक हो सकता है।

यूट्यूब और सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स की स्वतंत्रता

यूट्यूब, ट्विटर और फेसबुक जैसे डिजिटल प्लेटफार्म्स ने दुनिया भर में स्वतंत्र पत्रकारिता और सामाजिक मुद्दों पर खुली चर्चा को बढ़ावा दिया है। भारत में, रवीश कुमार, ध्रुव राठी, और अभिशर शर्मा जैसे पत्रकार और क्रिएटर्स ने इन प्लेटफार्म्स का उपयोग करते हुए लाखों लोगों तक अपनी बात पहुँचाई है। ये क्रिएटर्स सरकार की नीतियों पर आलोचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं, सामाजिक मुद्दों पर जागरूकता फैलाते हैं, और नागरिकों को जागरूक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

इन प्लेटफार्म्स ने स्वतंत्र पत्रकारों और क्रिएटर्स को पारंपरिक मीडिया की सीमाओं से परे जाकर अपनी बात रखने का अवसर दिया है। परंपरागत मीडिया संस्थानों की सीमितता, जो कभी-कभी दबाव या नियंत्रण का सामना करती हैं, को पार करते हुए डिजिटल मीडिया ने एक निष्पक्ष और स्वतंत्र मंच प्रदान किया है। उदाहरण के लिए, द प्रिंट (The Print) एक स्वतंत्र डिजिटल मीडिया प्लेटफार्म है, जो निष्पक्ष और तथ्यात्मक रिपोर्टिंग के लिए जाना जाता है। इसके अलावा, मोहनदास पाई, अजीत अंजुम, और अनुभव भट्ट जैसे क्रिएटर्स ने भी यूट्यूब के माध्यम से स्वतंत्र पत्रकारिता को बढ़ावा दिया है।

लाइसेंसिंग प्रणाली: स्वतंत्रता पर नियंत्रण?

यूट्यूब और सोशल मीडिया क्रिएटर्स के लिए लाइसेंसिंग प्रणाली लागू करने की चर्चा ने कई सवाल खड़े किए हैं। सरकार का तर्क है कि इस कदम से झूठी खबरों (फेक न्यूज़) और भ्रामक जानकारी के प्रसार को रोका जा सकेगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह कदम वास्तव में ऐसा करने के लिए है, या यह स्वतंत्र पत्रकारिता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने की एक कोशिश है?

लाइसेंसिंग प्रणाली लागू होने का मतलब यह हो सकता है कि सरकार क्रिएटर्स के कंटेंट पर सीधा नियंत्रण कर सकेगी। अगर क्रिएटर्स को सरकार से लाइसेंस प्राप्त करना होगा, तो इसका मतलब यह भी हो सकता है कि वे सरकार की शर्तों और सीमाओं के तहत काम करेंगे। यह स्वतंत्र क्रिएटर्स, जो सरकार की नीतियों की आलोचना करते हैं, के लिए एक बड़ी चुनौती बन सकती है।

जैसे रवीश कुमार, अभिशर शर्मा, ध्रुव राठी, आकाश बनर्जी (The Deshbhakt) और कुणाल कामरा जैसे क्रिएटर्स, जो सरकार की नीतियों पर सवाल उठाते हैं, इस प्रकार के नियमों से प्रभावित हो सकते हैं। उनके आलोचनात्मक दृष्टिकोण और बेबाक रिपोर्टिंग को इस लाइसेंसिंग प्रणाली के तहत दबाया जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा
भारत के संविधान में अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मूल अधिकार के रूप में संरक्षित किया गया है। भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर इस अधिकार की रक्षा में महत्वपूर्ण निर्णय दिए हैं।

1. रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य (1950)

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में प्रेस की स्वतंत्रता को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक हिस्सा माना और किसी भी प्रकार की सेंसरशिप को असंवैधानिक करार दिया। यह फैसला स्पष्ट रूप से बताता है कि सरकार के लिए नागरिकों की आवाज़ को नियंत्रित करना संविधान के विरुद्ध है।

2. श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015)

यह एक महत्वपूर्ण निर्णय था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट की धारा 66A को असंवैधानिक घोषित किया। इस धारा के तहत सोशल मीडिया पर व्यक्तियों की अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित किया जा सकता था। कोर्ट ने कहा कि यह धारा नागरिकों के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करती है।

3. सखाल पेपर्स बनाम भारत संघ (1962)

इस मामले में कोर्ट ने कहा कि समाचार पत्रों पर पृष्ठ संख्या की सीमा निर्धारित करना संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) का उल्लंघन है। यह फैसला प्रेस की स्वतंत्रता के संरक्षण में एक महत्वपूर्ण कदम था।
इन फैसलों से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय न्यायपालिका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्ध है और सरकार के किसी भी प्रकार के अनावश्यक हस्तक्षेप के खिलाफ है।

अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य: अमेरिका, यूके, फ्रांस, और जर्मनी
भारत में यूट्यूब क्रिएटर्स पर लाइसेंसिंग प्रणाली के संभावित प्रभावों को समझने के लिए यह देखना भी आवश्यक है कि अन्य पुराने और स्थिर लोकतांत्रिक देशों में क्या स्थिति है। अमेरिका, यूके, फ्रांस और जर्मनी जैसे देशों में डिजिटल मीडिया क्रिएटर्स के लिए सरकारी नियंत्रण बेहद सीमित है।

1. अमेरिका

अमेरिका में संविधान का पहला संशोधन (First Amendment) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। यहाँ सरकार का सोशल मीडिया और यूट्यूब क्रिएटर्स पर कोई प्रत्यक्ष नियंत्रण नहीं है। यूट्यूब और सोशल मीडिया पर कंटेंट क्रिएटर्स अपनी राय स्वतंत्र रूप से व्यक्त कर सकते हैं, और सरकार द्वारा लाइसेंसिंग की आवश्यकता नहीं होती है।

2. यूनाइटेड किंगडम (UK)

यूके में भी यूट्यूब और सोशल मीडिया क्रिएटर्स पर किसी प्रकार का लाइसेंसिंग नियंत्रण नहीं है। हालांकि, कुछ नियामक निकाय जैसे Ofcom पारंपरिक मीडिया पर निगरानी रखते हैं, लेकिन डिजिटल मीडिया क्रिएटर्स स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकते हैं।

3. फ्रांस और जर्मनी

फ्रांस और जर्मनी में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संविधान द्वारा संरक्षित किया गया है। इन देशों में यूट्यूब और सोशल मीडिया क्रिएटर्स पर लाइसेंसिंग का कोई कानून नहीं है। हालांकि, कुछ नियम अवैध सामग्री और हेट स्पीच के प्रसार को रोकने के लिए लागू किए गए हैं, लेकिन स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर सीधा नियंत्रण नहीं है।

भारत में प्रस्तावित प्रणाली: क्या यह लोकतंत्र के लिए सही है?

भारत में यदि यूट्यूब और सोशल मीडिया क्रिएटर्स के लिए लाइसेंसिंग प्रणाली लागू की जाती है, तो इससे न केवल उनकी स्वतंत्रता प्रभावित होगी, बल्कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ भी होगा। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों ने यह स्पष्ट किया है कि सरकार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई भी ऐसा नियंत्रण लगाने से बचना चाहिए, जो संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) का उल्लंघन करता हो।

द प्रिंट, न्यूज़लॉन्ड्री, ओपइंडिया, एल्ट न्यूज़ जैसे स्वतंत्र मीडिया प्लेटफार्म्स और रवीश कुमार, अभिशर शर्मा, ध्रुव राठी, आकाश बनर्जी, कुणाल कामरा जैसे क्रिएटर्स, जो सरकार की नीतियों की आलोचना करने में अग्रणी हैं, इस प्रणाली के तहत नियंत्रण में आ सकते हैं। इससे लोकतंत्र में स्वतंत्र आवाज़ों को दबाया जा सकता है, जो लोकतंत्र की नींव को कमजोर करेगा।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ है। यूट्यूब और सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स ने इस स्वतंत्रता को और सशक्त बनाया है। यदि सरकार इन प्लेटफार्म्स पर नियंत्रण लगाती है, तो यह स्वतंत्र पत्रकारिता और आलोचनात्मक सोच को दबाने का प्रयास हो सकता है। भारत को ऐसे किसी भी कदम से बचना चाहिए, जो लोकतांत्रिक ढांचे को कमजोर कर सके।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले और अंतरराष्ट्रीय उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए सरकार को संतुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। स्वतंत्र पत्रकारिता और आलोचना लोकतंत्र को मजबूत बनाती हैं, और इनकी रक्षा करना सरकार का कर्तव्य है।

लेखक लोकतंत्र प्रहरी (स्वतंत्र राजनीतिक विचारक)

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दया जोशी (संपादक)

श्री केदार दर्शन

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