सत्संग का हादसा या हादसों का सत्संग

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यह समझ से परे है कि किसी कार्यक्रम के आयोजकों का जितना जोर भीड़ जुटाने पर होता है, उसका एक अंश भी उस भीड़ को व्यवस्थित करने पर क्यों नहीं होता। अक्सर धार्मिक उत्सवों, मेलों, सत्संग, यज्ञ आदि के आयोजन में व्यवस्थागत खामियों के चलते भगदड़ मचने, दम घुटने, पंडाल वगैरह के गिरने से लोगों के नाहक मारे जाने की घटनाएं हो जाती हैं। इसके अनेक उदाहरण हैं, मगर उनसे शायद सबक लेने की जरूरत नहीं समझी जाती और फिर नए हादसे हो जाते हैं। उत्तर प्रदेश के हाथरस में हुआ हादसा इसकी ताजा कड़ी है। बताया जा रहा है कि वहां महीने के पहले मंगलवार को तीन घंटे के सत्संग का आयोजन किया गया था। उसमें देश के अलग-अलग राज्यों से श्रद्धालु आए हुए थे। करीब पचास हजार लोगों की भीड़ जुटी बताई जा रही है। सत्संग की समाप्ति के बाद अचानक भगदड़ मच गई और सौ से ऊपर लोग दब कर मर गए, दो सौ से अधिक के घायल होने की खबर है। बताया जा रहा है कि सत्संग समाप्ति के बाद जब मुख्य महात्मा का काफिला वहां से रवाना हुआ तो भीड़ को जबरन रोक दिया गया। भीषण गर्मी और उमस के कारण कई लोग बेहोश हो गए, जिसकी वजह से भगदड मची। हालांकि हादसे की जांच के आदेश दे दिए गए हैं और उसके बाद ही असली वजह पता चल सकेगी। निस्संदेह इतने बड़े आयोजन में जुटने वाली भीड़ का अंदाजा आयोजकों को रहा होगा। इस भीषण गर्मी में हजारों लोगों के एक जगह इकट्ठा लोगों पर क्या स्थिति होगी, इसका अनुमान भी उन्हें रहा होगा। मगर फिर भी लोगों के लिए छाया-हवा-पानी का माकूल इंतजाम क्यों नहीं किया गया। ऐसे आयोजनों में व्यवस्था की जिम्मेदारी आयोजक खुद उठाते हैं। वे अपने स्वयंसेवकों के जरिए आयोजन स्थल पर लोगों के प्रवेश और निकास का प्रबंध करते हैं। बताया जा रहा है कि इस सत्संग का आयोजन पिछले दस वर्षों से देश के विभिन्न हिस्सों में किया जा रहा है। इसलिए इसके आयोजकों और स्वयंसेवकों में अनुभव की कमी भी नहीं मानी जा सकती। फिर कैसे उन्हें इस तरह के हादसे का अंदेशा नहीं था। अगर भीड़ मुख्य महात्मा के करीब पहुंचने या उनके काफिले के पीछे जाने को उतावली हो उठी, तो जाहिर है, ऐसा तभी हुआ होगा, जब दोनों के रास्ते अलग से तय नहीं किएगए थे। सवाल यह भी है कि बगैर व्यवस्था जांचे स्थानीय प्रशासन ने कैसे इस आयोजन की इजाजत दे दी।

ऐसे हादसे न केवल धार्मिक आयोजनों में, बल्कि राजनीतिक रैलियों, विभिन्न मेलों, सांस्कृतिक उत्सवों आदि में भी हो चुके हैं। यह ठीक है कि निजी या सार्वजनिक प्रयासों से आयोजित होने वाले इतने विशाल कार्यक्रमों को संभालने के लिए स्थानीय स्तर पर पुलिस बल उपलब्ध कराना कठिन काम है, मगर इस तर्क पर प्रशासन की जवाबदेही समाप्त नहीं हो जाती। इस तरह का कोई भी आयोजन बिना प्रशासन की पूर्व अनुमति के नहीं हो सकता। फिर प्रशासन की जिम्मेदारी बनती है कि आयोजन स्थल की व्यवस्था जांचे और आयोजकों की जवाबदेही तय करे। मगर जिन आयोजनों से लोगों की आस्था जुड़ी होती है, उनमें प्रशासन अक्सर ढीला ही देखा जाता है। आखिर कब इस तरह के हादसों को रोकने के लिए कोई सख्त नियम-कायदा बनेगा। ऐसे हादसों की जवाबदेही तय करने के लिए कब कोई नजीर बन सकने वाली कार्रवाई होगी।

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दया जोशी (संपादक)

श्री केदार दर्शन

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