ऋषि चिंतन‼* ➖‼️ *दिव्य दृष्टि और उसकी व्यावहारिकता*

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*🥀१० अक्टूबर २०२४ गुरुवार🥀*
*//आश्विनशुक्लपक्ष सप्तमी २०८१ //*
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*‼ऋषि चिंतन‼*
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*दिव्य दृष्टि और उसकी व्यावहारिकता*
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👉 *दोनों भौंहों के मध्य भाग में बालरहित खाली स्थान है, उसे “भृकुटि” कहते हैं।* उसके नीचे अस्थि-आवरण के उपरांत एक बेर की गुठली जैसी ग्रंथि है। *उसे “आज्ञाचक्र” कहते हैं।* शरीरशास्त्र की दृष्टि से उसका कार्य और प्रयोजन अभी पूरी तरह नहीं समझा जा सका। *पर “आत्मविद्या” के अन्वेषी इसके अति महत्त्वपूर्ण कार्य को बहुत पहले से ही जानते हैं। इसे “तीसरा नेत्र” या “दिव्य नेत्र” कहते हैं। “दिव्यदृष्टि” यहीं से निस्सृत होती है।*

👉 *सुदूर क्षेत्रों के निवासी व्यक्तियों की परिस्थितियों तथा विभिन्न स्थानों में घटित होने वाली घटनाओं का विवरण “आज्ञाचक्र” बता सकता है।* उससे वहाँ के दृश्य देखे जा सकते हैं, जहाँ नेत्रों की पहुँच नहीं है। भूगर्भ में छिपे हुए रहस्य प्रकट हो सकते हैं और अंतरिक्ष में जो सूक्ष्म क्रियाकलाप अभी पक रहा है, निकट भविष्य में प्रत्यक्ष होने वाला है, उसका पूर्व रूप समझा जा सकता है। *यह सांसारिक अगम्य ज्ञान की उपलब्धि हुई।* इससे ऊपर आत्मसत्ता का, आत्मचेतना का, दैवी संकेतों का अभ्यास है। *इसे देख सकना इतना अद्भुत और आकर्षक है कि उस स्थिति में पहुँचा हुआ व्यक्ति परा और अपरा प्रकृति के सारे रहस्यों से ही अवगत हो जाता है।* तब यह स्थूलजगत के क्रियाकलापों के और बालक्रीड़ा में रचे हुए रेत बालू के घर-मकानों जैसी स्थिति में पाता है। *ईश्वरीय सत्ता, आत्मा की स्थिति, जीवन का स्वरूप, जन्म-जन्मांतरों की श्रृंखला, कर्त्तव्य-पथ, लोक-व्यवहार का आधार आदि महत्त्वपूर्ण आधार ही उसे वास्तविक लगते हैं। ऐसा दिव्यदर्शी मनुष्य बाल-बुद्धि से प्रेरित ओछी रीति को त्यागकर अपनी गतिविधियों में उन तत्त्वों का समावेश करता है, जो महामानवों के लिए उचित और उपयुक्त हैं।*
👉 *”तीसरे नेत्र” के खोलने से जो “विवेक-बुद्धि” जाग्रत होती है, उससे काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे मृग-मारीच अपने असली रूप में प्रकट हो जाते हैं और नष्ट करने के लिए शिवजी के तीसरे नेत्र की तरह हर विवेकवान की “दिव्यदृष्टि” खुल जाती है। “परिष्कृत दृष्टिकोण” विकसित हो जाने के कारण उसके सोचने और करने का तरीका माया-मोह ग्रस्त, अज्ञान-अंधकार में भटकने वाले लोगों से सर्वथा भिन्न होता है।* जीवात्मा के अंतरंगस्थ आयाम में दिव्यदृष्टि, अंतर्दृष्टि और दूरदृष्टि जुड़ा हुआ है। दो नेत्र प्रकृति ने दिए हैं। *”तीसरा नेत्र” खोलने और “दिव्य- दृष्टि” प्राप्त करने की “आज्ञाचक्र” साधना करना दूरदर्शी विवेकवान का काम है।* हमें इस परम पुरुषार्थ के लिए साहस जुटाना ही चाहिए। अपने आज्ञाचक्र की दृष्टि से बहिरंग और अंतरंग की सृष्टि अनिवार्यतः अन्योन्याश्रित अंतर्संबंधित है। परस्परता के सिद्धांतों से अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है।
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*जीवात्मा आज्ञा चक्र की दिव्यता और तेजोवलय की वैज्ञानिकता पृष्ठ-१५*
*🪴पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 🪴*
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दया जोशी (संपादक)

श्री केदार दर्शन

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