चीड़ के पेड़ों से रेजिन (लिसा) निकालने के लिए टीन के गमलों की जगह प्लास्टिक बोतलों का उपयोग, वन विभाग अनभिज्ञ


चीड़ के पेड़ों से रेजिन (लिसा) निकालने के लिए टीन के गमलों की जगह प्लास्टिक बोतलों का उपयोग, वन विभाग अनभिज्ञ
जंगल में खुलेआम मौत का इंतजाम, खतरे में पर्यावरण, पशु-पक्षी और मानव जीवन को भारी नुकसान
प्लास्टिक जलता है तो, ज़हर उगलता है जंगल मिट्टी तक हो जाती है स्वाहा
प्लास्टिक मुक्त अभियान की हकीकत दिखावे में अभियान, धरातल पर छलावा, जागो वन विभाग, जागो जिला प्रशासन
ठाकुर सुरेंद्र पाल सिंह, वरिष्ठ पत्रकार
(उत्तराखंड)उत्तरकाशी। विश्व में पर्यावरण को लेकर अनेकोंनेक पर्यावरण विदों ने बढ़ते पर्यावरण खतरों को लेकर केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक कई माध्यमों से सावधान किया सरकारों द्वारा पर्यावरण को बचाने हेतु लाखों करोड़ रुपये खर्च भी किए जाते रहे हैं लेकिन इन सबके इतर हर साल जंगलों में आग लगना, अंधाधुंध जंगलों का कटान, सहित इसी क्रम में उत्तराखंड के सीमांत जनपद उत्तरकाशी में ‘प्लास्टिक मुक्त भारत’ और ‘हरित भारत’ जैसे सरकारी अभियानों की जमीनी हकीकत पूरी तरह उजागर हो रही है।
भले ही केंद्र और राज्य सरकारें बार-बार यह दावा करें कि देश को प्लास्टिक मुक्त बनाया जा रहा है, लेकिन उत्तरकाशी के जंगलों में इसका उल्टा नज़ारा देखने को मिल रहा है। शहरों में कभी-कभार प्लास्टिक पर कार्रवाई होती भी है, तो वह सिर्फ दिखावे तक सीमित रह जाती है, जबकि जंगलों में यह संकट विकराल रूप ले चुका है।
डांडा माज़फ क्षेत्र के जंगलों के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी चीड़ के पेड़ों से रेजिन (लिसा) निकालने के लिए प्लास्टिक की बोतलों का बड़े पैमाने पर उपयोग किया जा रहा है। यह समस्या विभिन्न जंगलों में फैल गई है, जहां पेप्सी, माउंटेन ड्यू, और पानी की बोतलों समेत कई ब्रांड्स की इस्तेमाल की गई प्लास्टिक की बोतलें पेड़ों पर लटकती देखी जा सकती हैं। यह दृश्य जंगलों को प्रदूषित कर रहा है और पर्यावरण के लिए गंभीर खतरे का कारण बन सकता है।
पहले लिसा संग्रह के लिए टीन या चादर से बने धातु के पात्रों का उपयोग होता था, जो पर्यावरण के लिए सुरक्षित और टिकाऊ थे। ये पारंपरिक तरीके जंगलों में आग की घटनाओं को रोकने में भी सहायक होते थे। लेकिन अब कम खर्च और सुविधा के नाम पर प्लास्टिक का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जा रहा है, जो कि पर्यावरण के लिए घातक साबित हो रहा है।
इन प्लास्टिक बोतलों में जमा लिसा अत्यधिक ज्वलनशील होता है। जब जंगलों में आग लगती है, तो यह संयोजन आग को और अधिक भड़काने का काम करता है। ये बोतलें मानो घी का काम करती हैं – आग को न सिर्फ फैलाती हैं, बल्कि उसकी तीव्रता को कई गुना बढ़ा देती हैं। इसका नतीजा यह होता है कि एक छोटी सी चिंगारी भी पूरे जंगल को चंद घंटों में राख में तब्दील कर देती है।
यह स्थिति तब और चिंताजनक हो जाती है जब सरकारें शहरों में तो प्लास्टिक पर प्रतिबंध की बात करती हैं, लेकिन जंगलों में इस तरह की लापरवाहियों पर आंखें मूंदे रहती हैं। उत्तरकाशी के ये चीड़ वन पहले से ही आग के प्रति अत्यधिक संवेदनशील माने जाते हैं, और अब प्लास्टिक की बोतलों ने इस खतरे को और भी बढ़ा दिया है।
स्थानीय ग्रामीणों का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों से प्लास्टिक बोतलों का प्रयोग बढ़ा है क्योंकि यह तरीका सस्ता और सरल है। लेकिन इसके पर्यावरणीय दुष्परिणामों को लेकर कोई सजग नहीं दिख रहा।
सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि वन विभाग की घोर लापरवाही और प्रशासन के उदासीन रवैये ने इस संकट को और गहरा कर दिया है। जिस विभाग को वनों की रक्षा और संरक्षण की जिम्मेदारी सौंपी गई है, वही अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ता नजर आ रहा है। प्लास्टिक के विकल्प को बढ़ावा देने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया गया है, और ना ही इस खतरनाक प्रथा पर रोक लगाने के लिए कोई प्रभावी निगरानी तंत्र स्थापित किया गया है। यह नकारात्मक कार्यशैली और नीति स्तर पर सुस्ती जंगलों को धीरे-धीरे विनाश की ओर धकेल रही है।
यदि समय रहते इस समस्या पर अंकुश नहीं लगाया गया, तो इसका असर केवल जंगलों तक सीमित नहीं रहेगा। चीड़ के जंगलों में फैली आग वनस्पतियों को खाक कर देती है और वन्य जीव-जंतुओं के लिए जानलेवा साबित होती है। इससे जैव विविधता को गहरा नुकसान होता है और पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित हो जाता है।
उत्तरकाशी जैसे पर्वतीय और सीमांत क्षेत्रों में पहले से ही जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि जैसी समस्याएं गंभीर होती जा रही हैं। ऐसे में जंगलों में लगने वाली आग स्थितियों को और भयावह बना देती है।
सरकार और प्रशासन को अब कड़ी चेतावनी के रूप में इस स्थिति को देखना होगा। न केवल शहरी इलाकों, बल्कि वन क्षेत्रों में भी प्लास्टिक के उपयोग पर सख्त प्रतिबंध लगाना होगा। लिसा संग्रहण के लिए पारंपरिक और पर्यावरण-अनुकूल तकनीकों को पुनः लागू किया जाए, और निगरानी तंत्र को सुदृढ़ किया जाए ताकि कोई भी व्यक्ति जंगल में इस प्रकार का गैरजिम्मेदाराना प्रयोग न कर सके।
पेड़ों से लटकती ये प्लास्टिक की बोतलें जंगलों में आग लगने पर एक विकराल रूप धारण कर सकती हैं। इनसे फैलने वाला प्रदूषण न केवल पर्यावरण के लिए, बल्कि जीव-जंतुओं के लिए भी जानलेवा साबित हो सकता है। प्लास्टिक के पिघलने से वह स्थान कभी भी हरा-भरा नहीं हो सकता, और मिट्टी की उर्वरक क्षमता खत्म हो जाएगी। इससे न सिर्फ इंसान, बल्कि पशु-पक्षी भी प्रभावित होंगे। अंततः यह जंगलों को नष्ट कर देने वाला संकट बन जाएगा, और हमारी धरती पर मिट्टी की विलुप्तता का कारण बनेगा। यह भविष्य के लिए एक गंभीर चेतावनी है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। ये मामला उत्तरकाशी ही नहीं पूरे उत्तराखंड में हो सकता है विभाग और सरकार को तुरंत इस मामले को अतिशीघ्र संज्ञान में लेने की आवश्यकता है।


