वैश्विक समाज का 11वाँ अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस

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वैश्विक समाज का 11वाँ अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस

आज वैश्विक समाज 11वां अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस मना रहा है जो मूलतः भारत भूमि की वैश्विक समाज को एक अनमोल देन है। यद्यपि यह भारतीय आध्यात्मिक जीवन दर्शन, चिन्तन एवं व्यवहार आचरण से निकल कर आया है फिर भी इसका स्वरूप किसी मत,पंथ, विश्वास, विचार आदि से उपर उठकर वैश्विक आदर्श एवं व्यवहार बन गया है। इसकी जड़ें आदियोगी शिव से निकल कर, वेदों, उपनिषदों, योग शास्त्रों,जैन, बौद्ध मतों
और समस्त विश्व में फैल गयी और आज वैश्विक धरोहर बन गया है।
ऐसे तो यह मूलतः दो शब्दों यथा,योग और आसन से बना है परन्तु आमतौर पर लोग योग के नाम से ही जानते हैं परन्तु इसकी समग्र व्याख्या तो अद्भुत है जैसे ईश्वर की समग्र व्याख्या नहीं की जा सकती है वैसे ही योग भी है।

जब हम इसके व्यूत्पत्ति पर विचार करते हैं तो यह * यूज्
धातु से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ जोड़ना होता है और यहीं से इसकी गहराईयों से पड़ताल शुरू हो जाती है कि किससे और कैसे जोड़ना और क्यों जोड़ना तो हम ज्यादा गहराईयों में न जाकर
इस रुप में आपके समक्ष‌ रखने का प्रयास करुंगा कि आप सहजता और सरलता से समझ लें और इसे आत्मसात करने की कोशिश करें।
ऐसे तो शिव संवाद, वेदों, उपनिषदों,योग शास्त्रों,जैन और बौद्ध मतों में इसकी विशद् व्याख्या की गयी है जिससे अनुप्रेरित अनुप्राणित होकर यह चीन, जापान, तिब्बत, कोरिया और अन्य द पू एशियाई देशों में भी व्यापक रुप में फैल गया। द पू एशियाई देशों में इसे स्थापित करने का काम बोधिधर्मन ने किया जो भारतीय ध्यान पद्धति से झेन या जेन बन गया।

हम दो सूत्र वाक्यों पर ही इसकी महत्ता, उपयोगिता और उपादेयता पर प्रकाश डालने की कोशिश करता हूॅं,वे दो सूत्र वाक्य,
योग: कर्म सु कौशलम्
और योगश्चित्तवृत्ति निरोध: है और इसे हम सहज तरीके से आपके समक्ष रखने की कोशिश करेंगे।
लेकिन इसके पहले यह बताना भी उचित प्रतीत होता है कि जैसे मानव शरीर स्थूल, सूक्ष्म एवं कारणिक होता है वैसे ही योग विद्या के तीन आयाम होते हैं,आसन, स्थूल अवस्था, प्राणायाम,सूक्ष्मावस्था
और योग,कारणिक अवस्था से जुड़ा है जो हमारे समस्त क्रियाशीलताओं से युक्त है।

आसन से शरीर शुद्ध और स्वस्थ होता है तो प्राणायाम, हमारे प्राणशक्ति को सशक्त करता है और योग साधना आत्मा और अन्तश्चेतना को परम शक्ति से जोड़ने का काम करता है और ये समस्त क्रियाशीलताऍं
अष्टांगयोग या मार्ग से जुड़े हैं जिनमें ध्यान की बड़ी महत्ता और महिमा है जिसे मेडिटेशन भी कहा जाता है जो वैश्विक स्तर पर सभी मत,पंथ और सम्प्रदायों में द्रष्टव्य है।
अब हम उपरोक्त दो सूत्र वाक्यों पर आते हैं
जिसे समझना बहुत जरूरी है।
पहला सूत्र क्या कहता है जो भगवद्गीता से उद्धृत है,योग: कर्म सु कौशलम् अर्थात् योग और कुछ नहीं आपके विहित और निर्धारित कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करना है,इसे समझना ही संसार चक्र को समझना है।

हम सभी मनुष्यों को कुछ न कुछ कामों के लिए निर्दिष्ट किया गया है जिसका पालन करना
हमारा परम धर्म ( कर्तव्य) है और इससे पलायन ही अपकर्म या पाप है। अर्जुन कुरुक्षेत्र में युद्ध करने से इन्कार कर रहा है तब श्री कृष्ण उसे कर्मयोग का ज्ञान देते हुए बताते हैं कि इस कर्मक्षेत्र में जो कर्म तुम्हारे लिए निर्धारित है अर्थात् युद्ध करना, उसमें श्रेष्ठता ही योग है। जो जिस कर्म करने के लिए चयनित हैं,उसका श्रेष्ठतापूर्वक
पालन करना ही योगी का धर्म और धर्म का मर्म है और वही कर्मयोगी भी है। कितना सुन्दर और व्यवहारिक संदेश है कि बगैर किसी पुर्वाग्रह या दूराग्रह के हमें अपने अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए,क्या इससे कोई इन्कार कर सकता है, नहीं और यही परम सत्य है जो हमें हमारे संसार चक्र से मुक्त करता है।

दूसरा सूत्र जो योग शास्त्रों, औपनिषदिक दर्शन और जैन तथा बौद्ध मतों का सार है,
योगश्चित्तवृत्ति निरोध:
अर्थात् अपनी अपनी चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है।
मनुष्य के दुःख के मूल में इच्छा, कामना, तृष्णा, वासना,मोह, आकर्षण,अतीत आदि की सत्ता है। इच्छा और कामना हमारी चित्तवृत्तियों को संचालित, नियमित और नियंत्रित करती हैं और इच्छाओं के संसार का कोई अंत नहीं है,एक की प्राप्ति हुयी नहीं कि दूसरी पैदा है गयी, रक्तबीज की तरह अनन्त हैं ये इच्छाएं और कामनाएं जो कभी तृप्त ही नहीं हो सकती हैं और इनका तृप्त न होना ही
दुःख और क्लेश को जन्म देता है। हमारे संसाधन सीमित और न्यून हैं जिनसे वांछित की प्राप्ति हो ही नहीं सकती है।यदि आप समस्त संसाधनों से युक्त भी हैं तो आरोग्य,भूख, नींद, शान्ति आदि नहीं खरीद सकते हैं तब क्या करना है, अपने मन चित्त को योग-साधना के द्वारा नियंत्रित करने की कोशिश करनी है ताकि जीवन संयमित, मर्यादित और परिमार्जित हो सके।

चित्त की चंचलता हम मनुष्यों को दिग्भ्रमित करती रहती है,माया,भ्रम और कल्पनाओं के संसार का सृजन करती रहती है, हमें सत्य से सदैव दूर ले जाने का काम करती है, इसलिए योग-साधना के द्वारा ही हम सुखी रह सकते हैं।
यह औषधियों का औषधि है,मानव जाति के लिए वरदान है और निरपेक्ष भाव से युक्त है।
इसे गहराई से समझने की जरूरत है कि किसे सुख और शान्ति नहीं चाहिए पर उनकी खोज हम बाहर करते हैं जबकि वह हमारे भीतर ही उपलब्ध है, इसलिए योग सिर्फ अपने अपने इष्ट से जुड़ने की कला और विज्ञान नहीं है बल्कि स्वयं को स्वयं से जोड़ने की कला और विज्ञान भी योग है।
सादर धन्यवाद।
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सादर नमस्कार
सादर प्रणाम
सादर सु प्रभात
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दया जोशी (संपादक)

श्री केदार दर्शन

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